सरस्वती तीर्थ: पिहोवा की ऐतिहासिक धरोहर

सरस्वती तीर्थ: पिहोवा की ऐतिहासिक धरोहर

पिहोवा में स्थित सरस्वती तीर्थ, एक अद्वितीय धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल है, जो कुरुक्षेत्र से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर सरस्वती नदी के तट पर स्थित है। यह स्थल ब्रह्माण्ड पुराण, ऋग्वेद, महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है, जो इसकी धार्मिक महत्ता को और भी बढ़ाता है। पिहोवा का यह तीर्थ स्थल न केवल धार्मिक अनुष्ठानों का केंद्र है, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और कथाओं का भी प्रमुख स्थल है।

ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णित कथा

ब्रह्माण्ड पुराण के 43वें अध्याय में वर्णित कथा के अनुसार, सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा के समाधि की अवस्था में उनके मस्तिष्क से एक कन्या उत्पन्न हुई। ब्रह्मा ने जब उस कन्या से उसके उत्पत्ति के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि वह उन्हीं से उत्पन्न हुई है। ब्रह्मा ने उसे बताया कि उसका नाम सरस्वती है और वह प्रत्येक मनुष्य की जिह्वा में निवास करेगी। इसके अतिरिक्त, ब्रह्मा ने उसे यह भी बताया कि वह एक पवित्र नदी के रूप में भी धरती पर विद्यमान रहेगी।

सरस्वती नदी का वैदिक और पौराणिक महत्व

सरस्वती केवल पौराणिक काल की ही नहीं, बल्कि वैदिक काल की भी एक प्रमुख नदी थी। ऋग्वेद में इसका उल्लेख सर्वाधिक शक्तिशाली और वेगवान नदी के रूप में किया गया है। ऋग्वेद 7/95/1 में इसे इस प्रकार वर्णित किया गया है:

प्रक्षोदसा धायसा सस्र एषा सरस्वती धरुणमाय सी पूः।
प्रवाबधना रथ्येवयाति विश्वो अपो महिना सिंधुरन्था।

शतपथ ब्राह्मण में सरस्वती को वाक्, अन्न तथा सोम कहा गया है। वामन पुराण में इसे विष्णु की जिह्वा कहा गया है, और स्कंदपुराण में इसे ब्रह्मा की पुत्री कहा गया है। महाभारत में भी इस नदी का व्यापक उल्लेख मिलता है, जिसमें इसे अत्यंत पवित्र और पुण्यशाली बताया गया है।

सरस्वती नदी का उल्लेख महाभारत में

महाभारत के आदि पर्व के 95वें अध्याय में वर्णित कथा के अनुसार, इस पवित्र नदी के तट पर राजा मतिनार ने यज्ञ किया था। यज्ञ की समाप्ति पर नदी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती ने उनके पास आकर उन्हें पति रूप में वरण किया। महाभारत के वन पर्व में उल्लेख है कि पांडवों ने अपने वनवास के समय इस नदी को पार कर काम्यक वन में प्रवेश किया था। महाभारत के अनुसार, तीर्थ स्वरूपा इस नदी का सेवन करने और पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य सारस्वत लोकों का अधिकारी और आनंद का भागी होता है।

पिहोवा स्थित सरस्वती तीर्थ पर अनुष्ठान

पिहोवा स्थित सरस्वती तीर्थ पर पितरों के लिए श्राद्ध, पिण्ड और तर्पण देने का विधान है। तीर्थ परिसर में ही पृथ्वीश्वर महादेव मंदिर स्थित है, जिसका जीर्णोद्धार 18वीं शताब्दी में मराठाओं द्वारा किया गया था। मंदिर के साथ ही कार्तिकेय मंदिर है, जहाँ कार्तिक को तेल चढ़ाया जाता है। इस मंदिर में महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध माना जाता है। चैत्रमास की कृष्ण चतुर्दशी पर यहां भारी मेला लगता है, जिसमें हजारों की संख्या में श्रद्धालु स्नान और पिण्डदान हेतु आते हैं।

वामन पुराण में वर्णित कुरुक्षेत्र की नदियाँ

वामन पुराण के अनुसार, कुरुक्षेत्र की नौ प्रमुख नदियों का उल्लेख मिलता है, जिसमें सरस्वती नदी सर्वश्रेष्ठा मानी जाती है:

सरस्वती नदी पुण्या तथा वैतरणी नदी।
आपगा च महापुण्या गंगामन्दाकिनी नदी।
मधुस्रवा वासुनदी कौशिकी पापनाशिनी।
दृषद्वती महापुण्या तथा हिरण्वती नदी।
वर्षाकालवहाः सर्वा वर्जयित्वा सरस्वतीम्।
एतासामुदकं पुण्यं प्रावृष्ट्काले प्रकीर्तितम्।

उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि इन सभी नदियों में सरस्वती नदी सर्वश्रेष्ठा थी, क्योंकि वही सदैव जल से युक्त (सदानीरा) रहती थी।

सरस्वती की उत्पत्ति और महिमा

महाभारत में इस नदी को अग्नि की उत्पत्ति स्वरूप स्थानभूता नदियों में से एक माना गया है। भीष्म पर्व में इसे गंगा की 7 धाराओं में से एक माना गया है, जो प्लक्ष वृक्ष की जड़ से प्रकट होती है। इसका जल पीने से सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। महाभारत में इसके लुप्त होने का स्थान विनशन नामक स्थान को बताया गया है।

सरस्वती नदी के तट पर महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल

महाभारत के शल्य पर्व के 34वें एवं 35वें अध्याय में इन तीर्थ स्थलों का वर्णन किया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, इस नदी में स्नान करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वे वैकुण्ठ में निवास करते हैं। पूर्णिमा, अक्षया तृतीया तथा अमावस्या की शुभ तिथियों में इस तीर्थ का सेवन करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

सरस्वती तीर्थ परिसर का आधुनिक स्वरूप

सरस्वती के घाट के पूर्वी तथा पश्चिमी दिशा में 14-14 सीढ़ियाँ हैं। पूर्वी दिशा में उत्तर मध्यकालीन एक शिव मन्दिर तथा अष्टभुजा गुम्बद शिखर युक्त एक छोटा सा मन्दिर भी है। घाट के पूर्वी प्रवेश द्वार के मन्दिर में राधा-कृष्ण की मूर्ति प्रतिष्ठित है, जिसके प्रवेश में 9वीं शताब्दी की प्रस्तर निर्मित सप्त शाखा चौखट है। वर्तमान में यहाँ काफी नवीनीकरण हुआ है। सरस्वती के पूर्वी तथा पश्चिमी घाट को एक सेतु द्वारा जोड़ा गया है। यहाँ पूर्वी दिशा में एक गुरुद्वारा भी स्थित है।

पिहोवा का यह स्थल भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके पौराणिक, वैदिक और ऐतिहासिक महत्व के कारण यह स्थल न केवल एक धार्मिक केंद्र है, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और कथाओं का भी गवाह है। यहां के धार्मिक अनुष्ठान और मेलों में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं, जो इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बनाते हैं। सरस्वती नदी के तट पर स्थित यह स्थल भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का महत्वपूर्ण हिस्सा है और सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है।

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