रन्तुक यक्ष तीर्थ: ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व

रन्तुक यक्ष तीर्थ: ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व

कुरुक्षेत्र के बीड़ पिपली नामक स्थान पर स्थित रन्तुक यक्ष को समर्पित तीर्थ, सरस्वती नदी के किनारे स्थित है। महाभारत के अनुसार, कुरुक्षेत्र की पावन भूमि सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों के मध्य स्थित है। इस भूमि के चार कोनों में चार यक्ष स्थित हैं, जो कुरुक्षेत्र भूमि के रक्षक कहलाते थे। महाभारत में इन यक्षों को तरन्तुक, अरन्तुक, रामह्रद तथा मचक्रुक नामों से पुकारा गया है, जिनके बीच की भूमि कुरुक्षेत्र, समन्तपंचक तथा ब्रह्मा की उत्तर वेदी कहलाती है।

महाभारत में यक्षों का उल्लेख

कुरुक्षेत्र की रक्षक यक्ष परंपरा

महाभारत में चार यक्षों का उल्लेख मिलता है जो कुरुक्षेत्र भूमि के रक्षक थे। ये यक्ष क्रमशः तरन्तुक, अरन्तुक, रामह्रद और मचक्रुक कहलाते थे। ये यक्ष कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि के चार कोनों पर स्थित थे, जिनके मध्य का क्षेत्र कुरुक्षेत्र कहलाता है।

तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं
रामहदानां च मचकुकस्य च।
एतत् कुरुक्षेत्रसमन्तपंचकं
पितामहरयोत्तरवेदिरुच्यते ।।
(महाभारत, वन पर्व 83/238)

रन्तुक यक्ष का महत्व

महाभारत के अनुसार, बीड़ पिपली स्थित यक्ष को तरन्तुक यक्ष कहा गया है। कालांतर में तरन्तुक यक्ष को रन्तुक यक्ष के नाम से जाना गया। वामन पुराण में इस यक्ष को रत्नुक यक्ष भी कहा गया है। इस पुराण के अनुसार, कुरुक्षेत्र की यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व रत्नुक यक्ष के दर्शन करना आवश्यक माना जाता था, क्योंकि यह यक्ष तीर्थ यात्रियों के मार्ग में आने वाले विघ्नों को दूर करता था।

वामन पुराण में रन्तुक यक्ष का महत्व

रन्तुक यक्ष का अभिवादन

वामन पुराण के अनुसार, इस यक्ष का अभिवादन किए बिना कोई भी व्यक्ति कुरुक्षेत्र के तीर्थों की यात्रा का अधिकारी नहीं बन सकता था। इस पुराण में इसे यक्षेन्द्र की संज्ञा भी दी गई है।

रन्तुकं च ततो दृष्ट्वा द्वारपालं महाबलम्।
यक्षैसमभिवाद्यैव तीर्थयात्रां समारभेत्।।
(वामन पुराण, 34/11)

तीर्थ यात्रा की सफलता

वामन पुराण के अनुसार, सरस्वती के किनारे स्थित इस यक्ष तीर्थ पर स्नान करने के उपरान्त यहाँ स्थित मन्दिर के दर्शनों के साथ ही कुरुक्षेत्र की परिक्रमा सफल मानी जाती थी।

रन्तुकं च समासाद्य क्षामयित्वा पुनः पुनः।
सरस्वत्यां नरः स्नात्वा यक्षं दृष्ट्वा प्रणम्य च।।
पुष्पं धूपं च नैवेद्यं दत्त्वा वाचमुदीरयेत्।
तव प्रसादाद् यक्षेन्द्र वनानि सरितश्च याः।
भ्रमिष्यामि च तीर्थानि अविघ्नं कुरु मे सदा।।
(वामन पुराण, 33/19-21)

कुरुक्षेत्र यात्रा का प्रारंभिक द्वार

वामन पुराण में उल्लेख है कि तीर्थ यात्रा का प्रारम्भ रन्तुक यक्ष से ही करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि रन्तुक यक्ष का अभिवादन किए बिना कोई भी व्यक्ति कुरुक्षेत्र के तीर्थों की यात्रा का अधिकारी नहीं बन सकता था।

भूगोल और संरचना

बीड़ पिपली की भौगोलिक स्थिति

रन्तुक यक्ष का तीर्थ कुरुक्षेत्र रेलवे स्टेशन से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर कुरुक्षेत्र से पिपली (जी.टी. रोड) सड़क पर उत्तर में पुलिस लाईन के पीछे बीड़ पिपली गांव में स्थित है।

प्राचीनता और पुरातात्त्विक अवशेष

यह तीर्थ सरस्वती नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। यहाँ के निकट से अनेक पुरातात्त्विक संस्तरण मिले हैं, जिनमें दूसरी सहस्राब्दि ई. पूर्व के धूसर चित्रित मृदभाण्डों से लेकर आद्य ऐतिहासिक काल से मध्य काल तक की संस्कृतियों के अवशेष सम्मिलित हैं। इन पुरातात्त्विक प्रमाणों से इस तीर्थ की प्राचीनता सिद्ध होती है।

मन्दिर की संरचना

वर्तमान में मन्दिर परिसर के उत्तर में एक घाट है जिसमें दो अष्टभुजाकार बुर्जियां देखने को मिलती हैं। यहाँ ऊंचे वर्गाकार अधिष्ठान पर दो मन्दिर स्थित हैं जिसमें मुख्य शिव मन्दिर के गर्भगृह के साथ मण्डप भी जुड़ा है। इसका गर्भगृह अष्टभुजाकार से उठाया गया है जिसका शिखर कमल दलों का आकार लिए हुए गुम्बद सदृश है। मण्डप 15 फुट ऊंचा है जिसका शिखर वाल्ट के स्वरूप का है। इसी परिसर में एक वाल्ट शिखर वाला दूसरा छोटा मन्दिर भी स्थित है।

प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में कुरुक्षेत्र की सीमा

वैदिक काल में कुरुक्षेत्र की सीमा

प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, भिन्न-भिन्न समय में कुरुक्षेत्र की सीमा भिन्न-भिन्न रही है। वैदिक काल में कुरुक्षेत्र की सीमा पर्याप्त विस्तृत थी जिसका स्पष्ट प्रमाण सर्वप्रथम तैत्तिरीय आरण्यक में मिलता है।

तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्।
तस्य खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्।
तूर्नमुत्तरार्धः।
परोणज्जघनार्धः मरवः उत्त्करः।
(तैत्तिरीय आरण्यक, 5/1/1)

अर्थात्, देवों की यज्ञवेदि रूपा कुरुक्षेत्र भूमि दक्षिण में खाण्डव, उत्तर में तूर्ज, पश्चिम में परीण तथा मरु उत्तर प्रदेश तक विस्तारित थी।

महाभारत काल में कुरुक्षेत्र की सीमा

महाभारत काल में कुरुक्षेत्र दृषद्वती एवं सरस्वती के मध्य तक सीमित हो गया। महाभारत में कुरुक्षेत्र की सीमा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि तरन्तुक, अरन्तुक, रामह्रद तथा मचक्रुक नामक यक्षों के मध्य का प्रदेश ही कुरुक्षेत्र के नाम से विख्यात है।

पुरातात्त्विक प्रमाण

एलेग्जेंडर कनिंघम की खोज

प्रसिद्ध पुरात्तववेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम ने स्थानीय परम्परा एवं जनश्रुति का आश्रय लेते हुए इस यक्ष की स्थिति थानेसर के उत्तर-पूर्व में 2 मील की दूरी पर पिपली के समीप सरस्वती के तट पर आधुनिक रतगल नामक गांव में मानी है। पौराणिक साहित्य के अनुसार 48 कोस की परिक्रमा का यह प्रारम्भिक द्वार है। यहाँ पर स्नान कर मन्दिर में प्रणाम करने से परिक्रमा यात्रा सफल एवं फलदायी समझी जाती है।

रन्तुक यक्ष की मान्यताएँ

तीर्थ यात्रा का महत्व

वामन पुराण में वर्णित है कि तीर्थ यात्री को अपनी तीर्थ यात्रा का प्रारम्भ रन्तुक यक्ष से ही करना चाहिए। इस यक्ष के दर्शन करने के उपरान्त ही अन्य तीर्थों की यात्रा सफल मानी जाती थी।

विघ्नों का नाशक

रन्तुक यक्ष तीर्थ यात्रियों के मार्ग में आने वाले विघ्नों को दूर करता था। वामन पुराण में कहा गया है कि रन्तुक यक्ष का अभिवादन करने से यात्रा के सभी विघ्न समाप्त हो जाते हैं।

सरस्वती में स्नान

रन्तुक यक्ष तीर्थ पर सरस्वती नदी में स्नान करने का भी विशेष महत्व है। यह स्नान व्यक्ति को पवित्र करता है और उसकी तीर्थ यात्रा को सफल बनाता है।

रन्तुक यक्ष के मंदिर की विशेषताएँ

मुख्य मन्दिर

मुख्य मन्दिर का गर्भगृह अष्टभुजाकार से निर्मित है और इसका शिखर कमल दलों का आकार लिए हुए गुम्बद सदृश है। मण्डप 15 फुट ऊंचा है जिसका शिखर वाल्ट के स्वरूप का है।

सहायक मन्दिर

मुख्य मन्दिर के परिसर में एक वाल्ट शिखर वाला दूसरा छोटा मन्दिर भी स्थित है। यह मन्दिर भी ऊंचे वर्गाकार अधिष्ठान पर बना हुआ है और इसकी वास्तुकला भी मुख्य मन्दिर से मिलती-जुलती है।

रन्तुक यक्ष तीर्थ, कुरुक्षेत्र के बीड़ पिपली में स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। महाभारत और वामन पुराण में वर्णित इस यक्ष का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह तीर्थ सरस्वती नदी के किनारे स्थित है और यहाँ के पुरातात्त्विक प्रमाण इसकी प्राचीनता सिद्ध करते हैं। वामन पुराण के अनुसार, कुरुक्षेत्र की तीर्थ यात्रा का प्रारम्भ रन्तुक यक्ष के दर्शन से ही होता था, जो इस यक्ष की महत्ता को दर्शाता है। वर्तमान में यह तीर्थ चिट्टा मन्दिर के नाम से जाना जाता है और यहाँ पहुँचने के लिए पिपली-पिहोवा मार्ग से एक उपमार्ग है। इस तीर्थ की भौगोलिक स्थिति, संरचना, और धार्मिक मान्यताएँ इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बनाती हैं।

अन्य धार्मिक स्थल

kkrinfoadmin