भीष्म कुण्ड नरकातारी: पौराणिक महत्व और इतिहास
भीष्म कुण्ड नरकातारी महानदी सरस्वती के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ है। पुराणों में इसे अनरक तीर्थ के नाम से जाना जाता है। महाभारत एवं वामन पुराण दोनों में इस तीर्थ का उल्लेख मिलता है। इस पवित्र स्थल का संबंध महाभारत के महान योद्धा भीष्म पितामह से जुड़ा हुआ है, जो अपने बलिदान और प्रतिज्ञा के लिए प्रसिद्ध हैं।
पौराणिक संदर्भ
भीष्म कुण्ड के पूर्व में ब्रह्मा, दक्षिण में शिव, पश्चिम में रुद्रपत्नी और उत्तर में भगवान विष्णु का वास है। यह स्थान धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।
महाभारत और वामन पुराण में उल्लेख
महाभारत और वामन पुराण में इस तीर्थ का उल्लेख मिलता है। महाभारत के अनुसार, कौरवों की ओर से दस दिनों तक महाभारत युद्ध लड़ने के पश्चात् अर्जुन के बाणों से घायल होकर भीष्म पितामह इसी स्थल पर बाणों की शरशैय्या पर लेटे रहे थे। सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में आने के पश्चात् ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे। इस स्थल पर बने कुण्ड को भीष्म कुण्ड कहा जाता है।
लौकिक आख्यान
भीष्म पितामह का संबंध
लौकिक आख्यान इस तीर्थ का संबंध भीष्म पितामह से जोड़ते हैं। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् अर्जुन के बाणों से घायल होकर भीष्म पितामह ने इस स्थल पर अपनी अंतिम समय बिताया था। उन्होंने सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार किया और तब अपने प्राण त्यागे।
भीष्म कुण्ड का निर्माण
भीष्म कुण्ड के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि जब भीष्म पितामह बाणों की शरशैय्या पर लेटे थे, तब उन्होंने अपनी प्यास बुझाने के लिए कौरवों और पाण्डवों को इशारा किया। कौरव उनके लिए सुगन्धित जल लेकर आए, लेकिन भीष्म पितामह ने उसे अस्वीकार कर दिया। अर्जुन ने पर्जन्य अस्त्र का उपयोग कर भूमि से जल प्रकट किया, जिससे भीष्म पितामह ने अपनी प्यास बुझाई।
महाभारत में जलधारा का उल्लेख
महाभारत के भीष्म पर्व में भीष्म पितामह की प्यास बुझाने के लिए अर्जुन द्वारा जलधारा उत्पन्न करने का उल्लेख मिलता है:
अविध्यत्पृथिवीं पार्थः पाश्र्वे भीष्मस्य दक्षिणे।
उत्पपात ततोधारा वारिणो विमल शुभा।
शतस्यामृतकल्पस्य दिव्यगन्धरसस्य च
अतर्पयत्ततः पार्थः शीतया जलधारया।
(महाभारत, भीष्म पर्व)
युधिष्ठिर और भीष्म पितामह के उपदेश
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद, युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से राजधर्म और अनुशासन की शिक्षाएं ग्रहण कीं। महाभारत के अनुसार, महात्मा भीष्म के श्रीमुख से उन उपदेशों को सुनने के लिए कई ऋषि और महर्षि भी उपस्थित थे।
पाण्डवों और महर्षियों की उपस्थिति
युधिष्ठिर के साथ-साथ कई अन्य ऋषि और महर्षि भी भीष्म पितामह के उपदेशों को सुनने के लिए उपस्थित थे। इनमें आसित, देवल, व्यास जैसे महर्षि प्रमुख थे।
महाभारत की महत्ता
महात्मा भीष्म द्वारा दिए गए इन अपूर्व उपदेशों के कारण ही महाभारत को भारतीय वांगमय में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। महाभारत के ये उपदेश इसे विश्व की अनमोल साहित्यिक निधि बनाते हैं।
भीष्म कुण्ड का आधुनिक स्वरूप
पुरातात्विक महत्व
यह तीर्थ सरस्वती के तट पर स्थित है। तीर्थ के आसपास से उत्तर हड़प्पा कालीन एवं धूसर चित्रित मृदभाण्डीय संस्कृति के अवशेष मिलते हैं, जिससे इस तीर्थ की प्राचीनता सिद्ध होती है।
वर्तमान स्थिति
यह तीर्थ कुरुक्षेत्र से 5 किलोमीटर की दूरी पर उत्तरी दिशा में गांव नरकातारी में स्थित है। यहां एक विशाल कुण्ड है जिसे भीष्म कुण्ड के नाम से जाना जाता है।
भीष्म पितामह का इतिहास
भीष्म महाराज शान्तनु और गंगा के पुत्र थे। उनके जन्म का नाम देवव्रत था। उन्होंने अपने पिता की प्रसन्नता हेतु दाशराज की पुत्री सत्यवती की याचना की। सत्यवती के मनोरथ की पूर्ति हेतु उन्होंने आजीवन अखण्ड ब्रह्मचारी रहने की भीषण प्रतिज्ञा की, जिससे उनका नाम भीष्म पड़ा।
पितामह की प्रतिज्ञा
भीष्म पितामह की भीषण प्रतिज्ञा का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में मिलता है:
श्रृण्वतां भूमिपालानां यद्वव्रीमि पितुः कृते ।
अद्यप्रभृति मे दाशब्रह्मचर्यं भविष्यति ।
ततोऽन्तरिक्षेऽप्सरसो देवाः ऋषिगणास्तदा ।
अभ्यवर्षतकुसुमैर्भीष्मोऽयमिति चाब्रुवन् ।
(महाभारत, आदिपर्व, 100/94/97)
इच्छित मृत्यु का वरदान
अपने पुत्र के इस बड़े त्याग से प्रसन्न होकर शान्तनु ने भीष्म को इच्छित मृत्यु का वरदान दिया:
तच्छ्रुत्वा दुष्करंकर्म कृतंभीष्मेण शान्तनुः ।
स्वच्छन्दमरणं तुष्टोददौ तस्मै महात्मने ।।
(महाभारत, आदि पर्व 100/102)
महाभारत के युद्ध में भूमिका
कौरवों की ओर से सेनापति
महाभारत के महायुद्ध के प्रथम दिन भीष्म ने कौरव पक्ष के सेनापति का पद स्वीकार किया। उन्होंने निरन्तर नौ दिनों तक पाण्डव सेना का भीषण संहार किया।
अर्जुन द्वारा घायल होना
दसवें दिन अर्जुन ने कूटनीति और छल का प्रयोग करते हुए शिखण्डी को आगे कर भीष्म को अपने बाणों से बुरी तरह घायल कर दिया। बाणशय्या पर लेटे हुए भीष्म ने अर्जुन से अपने मुख के सूखने के कारण जल की याचना की।
भीष्म कुण्ड का निर्माण
अर्जुन के शक्तिशाली गाण्डीव से वहां धरती पर एक गहरा कुण्ड बन गया। भीष्म से संबंधित होने से ही यह कुण्ड परवर्ती काल में भीष्म कुण्ड के नाम से विख्यात हो गया।
भीष्म कुण्ड का स्थापत्य और धार्मिक महत्व
प्राचीन कुण्ड
यहां एक विशाल आयताकार प्राचीन कुण्ड बना हुआ है। इस कुण्ड के निचले भाग तक पहुंचने के लिए सीढ़ियों का निर्माण किया गया है।
उत्तर मध्यकालीन निर्माण
जनश्रुति के अनुसार, भीष्म शरशय्या के समय प्रकट बाणगंगा की कथा की स्मृति को बनाए रखने के लिए उत्तर मध्यकालीन समय में इस कुण्ड का निर्माण किया गया। इस कुण्ड में प्रयोग की गई ईंटें (लाखौरी ईंटें) इस बात की साक्षी हैं।
मन्दिर और प्रतिमाएँ
इस कुण्ड के निकट दो नए मन्दिर निर्मित हैं जिसमें भीष्म को शरशय्या पर दिखाया गया है। इस तीर्थ की उत्तरी दिशा में हनुमान की एक विशाल रंगीन प्रतिमा भी है।
सरस्वती नदी के तट पर स्थित
यह तीर्थ सरस्वती नदी के तट पर स्थित है, जो इसे और भी धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाता है। सरस्वती नदी का उल्लेख भी कई पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में मिलता है, जिससे इस तीर्थ का महत्व और भी बढ़ जाता है।
भीष्म कुण्ड नरकातारी एक पवित्र तीर्थ स्थल है जो महाभारत के महान योद्धा भीष्म पितामह के बलिदान और प्रतिज्ञा से जुड़ा हुआ है। यह स्थल धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। महाभारत के उपदेश और भीष्म पितामह के बलिदान की कथा इस स्थल को भारतीय वांगमय में एक विशिष्ट स्थान दिलाते हैं।
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